Sunday, November 13, 2011

निरामिष: पशु-बलि : प्रतीकात्मक कुरीति पर आधारित हिंसक प्रवृति पर एक टिप्पणी

आदरणीय डा. अरविन्द मिश्रा जी झींगा मछली हाथ में लिए हुए
आप में से चंद लोग मांस नहीं खाना चाहते तो न खाएं , यह आपका फ़ैसला है लेकिन मुसलमानों के मांसाहार की निंदा करने के लिए कम से कम क़ुरआन का सहारा तो आपको नहीं लेना चाहिए।
क़ुरआन में मांस खाने से कहीं रोका गया हो तो आप बताएं कि कहां रोका गया है ?
क़ुरआन के जानकार किसी अधिकृत मुस्लिम विद्वान ने वह कहा हो जो आप बता रहे हैं कि क़ुरआन का अर्थ यह नहीं है बल्कि यह है और निष्कर्षतः मांस न खाया जाए तो आप बताएं वर्ना तो हम आपको बताते हैं कि बनारस में झींगा मछली का पालन शुरू कर दिया गया है शाकाहारी ब्राह्मणों की देख रेख में ही।
आदरणीय अरिवन्द मिश्रा जी भी यह जानते हैं बल्कि हमें तो यह बात पता ही उनके ज़रिये चली। फ़ेस बुक पर हमने देखा कि आदरणीय मिश्रा जी अपने दसियों हिंदू भाईयों के साथ अपने हाथों में झींगा मछली लिए खड़े हैं।
हमें बड़ा ताज्जुब हुआ लेकिन यह सच था।
हमने समझा कि उनकी सोच में वाक़ई कुछ बदलाव आया है लेकिन यहां ‘निरामिष‘ ब्लॉग पर देखा तो फिर ताज्जुब हुआ कि जनाब मांसाहार का विरोध कर रहे हैं।
यह क्या बात हुई कि व्यावसायिक हितों के मददेनज़र तो मांसाहार को प्रोत्साहन दिया जाए और फिर उसी का विरोध भी किया जाए ?
यह कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता है ?
यही हाल दूसरे शाकाहारियों का है।
वे भी किसी न किसी रूप में जीव खा रहे हैं, दही और शहद आदि ख़ूब खा रहे हैं लेकिन बकरा खाने वाले का विरोध कर रहे हैं।
जीव छोटा हो तो खा लिया जाय और जीव का साइज़ बड़ा हो तो न खाया जाए ?
उनके विरोध से तो बस साइज़ का विरोध नज़र आ रहा है न कि जीव को मारने और उसे खाने का !
हमें उम्मीद है कि समय के साथ आप और बदलेंगे और तब यह सैद्धांतिक विरोध आप के विचारों में शेष न रहेगा।